Monday 31 October 2011

कुछ ज़्रर्द सी कुछ सर्द सी शाम का धुन्धला आंचल था
,एक आलम पांव से फिसला था और कतरा भर मौसम छलका था
रात की गलियों कूचों में धडकन नंगे पांव दौड़ी थी
हवाएं कुछ पल ठिठकी थीं, एक तारा शायद टूटा था
न हम उससे बेहतर थे, न वह हमसे कमतर था
एक छन्द और एक ताल पर वक्त का झांझर झनका था

Wednesday 5 October 2011

अब चाहे रातों के मजहब में
तनहाई लिखी हो
सर्द आहों के अंगारे साथ लिए
घूमती हूँ
पिघलकर समन्दर मे घुल जाओगे
या खाक हो जाओगे
अगर जिस्म औरत का वतन है
तो मान लो
मैं वतनपरस्त नहीं
अलबत्ता
हर रात जिस्म
स्वाहा और स्वधा तक की दूरी
खुदबखुद तय करता है
क्योंकि रूह बेचकर
जिस्म कमाने की
वतनपरस्ती मंज़ूर नहीं
मान लो
औरत का कोई
वतन भी नहीं होता
परस्तों और फरोशों
के बीच सिर्फ
बदन होता है
सतीत्व की तलवार पर
उम्र को साधना
बदनपरस्ती नहीं तो
और क्या है?

Wednesday 14 September 2011

अनुबन्ध

1
महान अनुष्ठान के मध्य
सप्तपदी की रस्म
जैसे ही सम्पन्न की हमने
मन में किसी ने कहा जैसे
लो सात जन्मों के कांट्रेक्ट पर
दस्तखत हो गए तुम्हारे
2
दोनो नितांत अपरिचित
परस्पर आँखों में
अपने-अपने भविष्य को
फलित होता देख रहे थे
जो कहीं से स्वप्न नहीं था
दोनो की बांहें लिपटी
और चारो हथेलियां एक हो गई
एक पवित्र शपथ ने जन्म लिया
चारो हाथों की लकीरें तुम्हारी
दोनो की दृष्टि मिली
शपथ ने शपथ को जनमा
चारो आंखो के सपने तुम्हारे
और फिर सबकुछ एकाकार हो गया
3
एक यात्रा का प्रारम्भ था वह
देह से मन तक की
दृष्टि से क्षितिज तक की
प्रकृति से पुरुष तक की
या साकार से निराकार तक की
जब साधक की भांति
देहयज्ञ में अपनी-अपनी
मन-प्राण-आत्मा की
आहूतियां डाली थी हमने
और उसने मेरी धरती में
प्रणय बीज बोए थे
अनुभूतियों का विराट विश्व था
मेरे समक्ष
4
दोनो की बाहें अपने-अपने कान्धे पर
लटकी बेजान
दोनो की आंखों मे उगे नागफेनी
टूटे सपनो की छोटी छोटी किरचियां
यह भी किसी दृष्टि से
स्वप्न नही था
5
सम्बन्ध के गणित में
यह भूल
हमारी थी, तुम्हारी थी
या उस विधाता की
इस जटिलता को
कब जनमा था हमने
स्मरण है गणित का वह सूत्र
पहले का करी तब करी भागा
सगर जोड़ तब अंत घटावा
कोई सम्बन्द सूत्र होता नहीं ऐसा
बस उनके गुणात्मक परिणाम
 ही तो होते हैं
उम्मीद है सात जन्म के
कांट्रेक्ट का
यह आखरी जन्म हो शायद
इस जन्म में निभाने का
प्रश्न फिर भी शेष है।

Saturday 10 September 2011

खयालों के रेशमी लिहाफ में

रुई के फाहों सी ये तेरी सरगोशियाँ
हँस पड़ी थी रात जैसे खनकी हो कई चूड़ियाँ
वो हमारी ज़िद थी कोई या थी वक्त की कमज़ोरियाँ
ऐसे रूठे उनसे जैसे बड़े बाप की साहबज़ादियाँ
चान्दनी बरसे न बरसे हमें तो मतलब चाँद से
लुका-छिपी का खेल निराला निराली उसकी कारगुज़ारियाँ


Thursday 8 September 2011

मेरी रातें

रात के काले समन्दर में
डूबती-उतरती
नीन्द की सफीना मेरी
दरख्त से बून्द बून्द टपकते
लमहों की आवाज पर
डरती हुई सपनों की गोरैया मेरी
साहिल पे खड़ा घनेरा कोई दरख्त
प्यार से बुलाता हुआ कि
आ जा अपनी शाखों में
थोड़ी पनाह दे दूँ
पर मैं तो आरजुओं की टूटी पतवार लिए
पहुँच जाती हूँ उस चाँद पर
जहाँ आज भी एक बुढिया
चांदी के चरखे पर
बादलों की रूई कातती है
और उसके पार
जहाँ है खुदा का बागीचा
और थपकियाँ देकर सुलाने वाली
कोई नीलम परी
ये क्या कि
हर रात, हर बार
मेरी सफीना
काले समन्दर के
बीच में ही डूब जाती है
हमेशा कोई उकाब
आंखों से सपनो की गोरैया
नोच ले जाता है
और
दूर साहिल पे खड़ा
घनेरा वह दरख्त
अपनी शाखें हिलाता रह जाता है
जागने पर
कुछ नही होता
न वह दरख्त, न वह गोरैया
न वह बुढिया न कोई नीलम परी
साथ रह जाती है
आरजुओं की टूटी
पतवार मेरी

Wednesday 7 September 2011

मेरा ईश्वर तुम्हारा खुदा

मेरे ईश्वर और तुम्हारे खुदा के दरमियां
हम ही तो हैं
आओ इन्हें मिलाने के लिए
हम एक पूल बन जाएं
किसी ने डुबो दिया इनके वज़ूद को
गहरे स्याही में
आओ हम दोनो रौशनी की लकीर बन जाएं
मुहब्बत जमाने की मोहताज़ क्यों बने
उन्हें उठाने दो उंगलियाँ
हमारे लिबास के फर्क पर
मेरी प्राथना और तुम्हारे अज़ान पर
मेरे गीत तुम्हारे नज़्म पर
मेरे पूरब तुम्हारे पश्चिम पर
देखो .............................
इस पूरब और पश्चिम के
दोनो छोर पर
मेरा ईश्वर, तुम्हारा खुदा
अपनी उंगलियों में धागा लपेटे खड़ा है
आओ हम दोनो .........
इस धागे पर चलने वाले
नट और नटी बन जाएं
इससे पहले कि कोई चूक हो
आओ ............
एक दूसरे की हथेलियों पर
अपना-अपना दस्तखत कर दें
तुम देखो अपनी हथेली पर
कृष्ण का विराट रूप
मैं अपनी हथेली पर
नूर-ए-खुदा देखूं
तुम करो गुरुर कि
दोनो हथेलियाँ तुम्हारी हैं
मुझे हो घमंड कि
दोनो हथेलियाँ हमारी हैं
आओ.........
इन हथेलियों में ज़ख्मों के टीसते फूल लिए
दुआ करें इंसानी दुनिया में
मुहब्बत के लिए... अमन के लिए.... चैन के लिए 

खुदा के खेत की रखवाली

खुदा अपने खेत की
रखवाली मुझे दे दे
नज़्र करने के लिए है क्या
कुछ मन की खुरचने और जले वक्त की रोटियाँ
तेरे खेत से बटोरा करुगी
नफरत के पीले पत्ते 
दुपट्टे की हवा से उड़ाया करुँगी 
दोज़ख के काले कव्वे 
बदले में मेरी झोली में 
मुहब्बत की फसल का 
दो मुट्ठी डाल देना 
हमारी आँखों से लेकर रोशनी की रुई 
कातकर निकाल कुछ सुनहरे तार 
बनाकर एक रोशनी की चादर, 
डाल दे इस दुनिया पर 
ये दुनिया वाले सदियों से 
बेखौफ नींद नही सोए 
बदले में अगर चाहे 
तो हमारे आंसूओं को गिरवी रखले 
और हमारे रूह के दिए में 
ज़रा सी, बस ज़रा सी
तेल और डाल देना